इस्‍लाम में तीन तलाक़ की हक़ीक़त


मो. अनस सिद्दीकी


यूं तो तलाक़ कोई अच्छी चीज़ नहीं है और सभी लोग इसको ना-पसंद करते हैं। इस्लाम में भी यह एक बुरी बात समझी जाती है, लेकिन इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि तलाक़ का हक ही इंसानों से छीन लिया जाए। दरअसल, Husbend-Wife में अगर किसी तरह भी निबाह नहीं हो पा रहा है, तो अपनी ज़िंदगी जहन्नुम बनाने से बेहतर है कि वो अलग होकर अपनी ज़िन्दगी का सफ़र अपनी मर्ज़ी से पूरा करें जो कि इंसान होने के नाते उनका हक़ है, इसलिए दुनिया भर के क़ानून में तलाक़ की गुंजाइश मौजूद है, और इसलिए पैग़म्बरों के दीन (धर्म) में भी तलाक़ की गुंजाइश हमेशा से रही है।

आइए अब ज़रा नज़र डालते हैं पवित्र क़ुरआन में तलाक़ के असल मायने क्‍या हैं?

दरअसल, दीने इब्राहीम की रिवायात के मुताबिक़ अरब के लोग जाहिलियत के दौर में भी तलाक़ से अनजान नहीं थे, उनका इतिहास बताता है कि तलाक़ का कानून उनके यहां भी लगभग वही था, जो अब इस्लाम में है, लेकिन कुछ बिदअतें उन्होंने इसमें भी दाख़िल कर दी थीं। किसी जोड़े में तलाक़ की नौबत आने से पहले हर किसी की यह कोशिश होनी चाहिए कि जो रिश्ते की डोर एक बार बँध गई है, उसे मुमकिन हद तक टूटने से बचाया जाए। जब किसी पति-पत्नी का झगड़ा बढ़ता दिखाई दे, तो अल्लाह ने क़ुरआन में उनके क़रीबी रिश्तेदारों और उनका भला चाहने वालों को यह हिदायतें दी है कि वो आगे बढ़ें और मामले को सुधारने की कोशिश करें! इसका तरीक़ा क़ुरआन ने यह बतलाया है कि“एक फ़ैसला करने वाला शौहर के ख़ानदान में से मुक़र्रर (नियुक्त) करें और एक फ़ैसला करने वाला बीवी के ख़ानदान में से चुने, और वो दोनों पक्ष मिल कर उनमे सुलह कराने की कोशिश करें। 

इससे उम्मीद है कि जिस झगड़े को पति पत्नी नहीं सुलझा सके वो ख़ानदान के बुज़ुर्ग़, दूसरे हमदर्द लोगों के बीच में आने से सुलझ जाए।

क़ुरआन ने इसे "सूरा ए निसां" में कुछ यूं बयान किया है “और अगर तुम्हें शौहर बीवी में फूट पड़ जाने का अंदेशा हो तो एक हकम (जज) मर्द के लोगों में से और एक औरत के लोगों में से मुक़र्रर कर दो, अगर शौहर बीवी दोनों सुलह चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच सुलह करा देगा, बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला और सब की खबर रखने वाला है” (सूरा ए निसा-35)

इसके बावजूद भी अगर शौहर और बीवी दोनों या दोनों में से किसी एक ने तलाक़ का फ़ैसला कर ही लिया है, तो शौहर बीवी के ख़ास दिनों यानी मासिक धर्म (Menstruation) के आने का इंतज़ार करे, और ख़ास दिनों के गुज़र जाने के बाद जब बीवी पाक़ हो जाए तो बिना हम-बिस्तर हुए कम से कम 2 ज़िम्मेदार लोगों को गवाह बना कर उनके सामने बीवी को एक तलाक़ दे, यानी शौहर हर बीवी से सिर्फ़ इतना कहे कि ”मैं तुम्हे तलाक़ देता हूं” तलाक़ हर हाल में एक ही दी जाएगी 2 या 3 या 100 नहीं,जो लोग जिहालत की हदें पार करते हुए 2, 3 या 199 या 1000 तलाक़ बोल देते हैं, यह इस्लाम के बिल्कुल ख़िलाफ़ अमल है और बहुत बड़ा गुनाह है। अल्लाह के रसूल (सल्लललाहो अलैहि वसल्लम) के फ़रमान के मुताबिक़, जो ऐसा बोलता है, वो इस्लामी शरियत और क़ुरआन का मज़ाक उड़ा रहा होता है। इस 1 तलाक़ के बाद बीवी 3 महीने यानी 3 तीन हैज़ (जिन्हें इद्दत कहा जाता है और अगर वो प्रेग्नेंट है तो बच्चा होने तक) शौहर ही के घर रहेगी और उसका ख़र्च भी शौहर ही के ज़िम्‍मे रहेगा, लेकिन उनके बिस्तर अलग अलग रहेंगे, क़ुरआन ने "सूरा ए तलाक़" में हुक्म फ़रमाया है कि इद्दत पूरी होने से पहले ना तो बीवी को ससुराल से निकाला जाए और ना ही वो ख़ुद निकले, इसकी वजह क़ुरआन ने यह बतलाई है कि इससे उम्मीद है कि इद्दत के दौरान शौहर बीवी में सुलह हो जाए और वो तलाक़ का फैसला वापस लेने को तैयार हो जाएं। अक़्ल की रौशनी से अगर इस हुक्म पर ग़ौर किया जाए तो मालूम होगा कि इसमें बड़ी हिकमत छुपी है। हर मुआशरे (समाज) में बीच में आज भड़काने वाले लोग मौजूद होते ही हैं। अगर बीवी तलाक़ मिलते ही अपनी मां के घर चली जाए तो ऐसे लोगों को दोनों तरफ कान भरने का मौक़ा मिल जाएगा, इसलिए यह ज़रूरी है कि बीवी इद्दत का वक़्त शौहर ही के घर गुज़ारे। फिर अगर शौहर बीवी में इद्दत के दौरान सुलह हो जाए, तो फिर से वो दोनों बिना कुछ किए शौहर और बीवी की हैसियत से रह सकते हैं। इसके लिए उन्हें सिर्फ़ इतना करना होगा कि जिन गवाहों के सामने तलाक़ दी थी, उन्‍हें ख़बर कर दें कि हमने अपना फ़ैसला बदल लिया है, क़ानून में इसे ही ”रुजू” करना कहते हैं और यह पूरी ज़िन्दगी में 2 बार ही किया जा सकता है, इससे ज्यादा नहीं। (सूरा ए बक़र:- 229) शौहर रुजू ना करे तो इद्दत के पूरा होने पर शौहर बीवी का रिश्ता ख़त्म हो जाएगा। लिहाज़ा क़ुरआन ने यह हिदायत फ़रमाई है कि इद्दत अगर पूरी होने वाली है, तो शौहर को यह फ़ैसला कर लेना चाहिए कि उसे बीवी को रोकना है या रुख़सत करना है। दरअसल, दोनों ही सूरतों में अल्लाह का हुक्म है कि मामला, अच्छे तरह से किया जाए। "सूरा ए बक़र:" में हिदायत फ़रमाई गई  है कि अगर बीवी को रोकने का फ़ैसला किया है, तो यह रोकना बीबी को परेशान करने के लिए हरगिज़ नहीं होना चाहिए बल्कि सिर्फ़ भलाई के लिए ही रोका जाए। अल्लाह क़ुरआन में फ़रमाता है “और जब तुम औरतों को तलाक़ दो और वो अपनी इद्दत के ख़ात्मे पर पहुंच जाए तो या तो उन्हें भले तरीक़े से रोक लो या भले तरीक़े से रुख़सत कर दो, और उन्हें नुक़सान पहुंचाने के इरादे से ना रोको, के उन पर ज़ुल्म करो, और याद रखो के जो कोई ऐसा करेगा वो दर हक़ीक़त अपने ही ऊपर ज़ुल्म ढाएगा, 

और अल्लाह की आयातों को मज़ाक ना बनाओ और अपने ऊपर अल्लाह की नेमतों को याद रखो और उस क़ानून और हिकमत को याद रखो जो अल्लाह ने उतारी है जिसकी वो तुम्हे नसीहत करता है, और अल्लाह से डरते रहो और ध्यान रहे के अल्लाह हर चीज़ से वाक़िफ़ है”। (सूरा ए बक़र:- 231) लेकिन अगर उन्होंने इद्दत के दौरान रुजू नहीं किया और इद्दत का वक़्त ख़त्म हो गया तो अब उनका रिश्ता ख़त्म हो जाएगा, अब उन्हें जुदा होना है। इस मौक़े पर क़ुरआन ने कम से कम 2 जगह (सूरा ए बक़र:, आयात 229 और सूरा ए निसा, आयत 20 में) इस बात पर बहुत ज़ोर दिया है कि मर्द ने जो कुछ बीवी को पहले गहने, क़ीमती सामान, रुपये या कोई जाएदाद, तोहफ़े के तौर पर दे रखी थी, उसका वापस लेना शौहर के लिए बिल्कुल जायज़ नहीं है, वो सब माल जो बीवी को तलाक़ से पहले दिया था वो अब भी बीवी का ही रहेगा और वो उस माल को अपने साथ लेकर ही घर से जाएगी, शौहर के लिए वो माल वापस मांगना या लेना या बीवी पर माल वापस करने के लिए किसी तरह का दबाव बनाना बिल्कुल जायज़ नहीं है। (नोट–अगर बीवी ने ख़ुद तलाक़ मांगी थी जबकि शौहर उसके सारे हक़ सही से अदा कर रहा था या बीवी खुली बदकारी पर उतर आई थी, जिसके बाद उसको बीवी बनाए रखना मुमकिन नहीं रहा था, तो मेहर के अलावा उसको दिए हुए माल में से कुछ को वापस मांगना या लेना शौहर के लिए जायज़ है।) अब इसके बाद बीवी आज़ाद है, वो चाहे जहां जाए और जिससे चाहे शादी करे, अब पहले शौहर का उस पर कोई हक़ बाकी नहीं रहा।) इसके बाद तलाक़ देने वाला मर्द और औरत जब कभी ज़िन्दगी में दोबारा शादी करना चाहें तो वो कर सकते हैं, इसके लिए उन्हें आम निकाह की तरह ही फिर से निकाह करना होगा और शौहर को मेहर देने होंगे और बीवी को मेहर लेने होंगे।अब फ़र्ज़ करें कि दूसरी बार निकाह करने के बाद कुछ समय के बाद उनमे फिर से झगड़ा हो जाए और उनमे फिर से तलाक़ हो जाए तो फिर से वही पूरा Process दोहराना होगा जो ऊपर बताया गया है। अब फ़र्ज़ करें कि दूसरी बार भी तलाक़ के बाद वो दोनों आपस में शादी करना चाहें तो शरीयत में तीसरी बार भी उन्हें निकाह करने की इजाज़त है। लेकिन अब अगर उनकी तीसरी बार भी तलाक़ हुई तो यह तीसरी तलाक़ होगी, जिस के बाद ना तो रुजू कर सकते हैं और ना ही आपस में निकाह किया जा सकता है।

हलाला :

अब चौथी बार उनकी आपस में निकाह करने की कोई गुंजाइश नहीं, लेकिन सिर्फ़ ऐसे कि अपनी आज़ाद मर्ज़ी से वो औरत किसी दूसरे मर्द से शादी करे और इत्तिफाक़ से उनका भी निभा ना हो सके और वो दूसरा शौहर भी उसे तलाक़ दे दे या मर जाए तो ही वो औरत पहले मर्द से निकाह कर सकती है,  इसी को ”हलाला” कहते हैं।लेकिन याद रहे यह इत्तिफ़ाक़ से हो तो जायज़ है,  जान बूझकर या Plan बना कर किसी और मर्द से शादी करना और फिर उससे सिर्फ़ इसलिए तलाक़ लेना ताकि पहले शौहर से निकाह जायज़ हो सके यह शरीयत के ख़िलाफ़ साजिश और सरासर नाजायज़ है और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ऐसी साजिश करने वालों पर लानत फ़रमाई है।

"ख़ुला" क्या है?

अगर सिर्फ बीवी तलाक़ चाहे तो उसे शौहर से तलाक़ मांगना होगी, अगर शौहर नेक इंसान होगा तो ज़ाहिर है वो बीवी को समझाने की कोशिश करेगा और फिर उसे एक तलाक़ दे देगा, लेकिन अगर शौहर मांगने के बावजूद भी तलाक़ नहीं देता तो बीवी के लिए इस्लाम में यह आसानी रखी गई है कि वो शहर-काज़ी (जज) के पास जाए और उससे शौहर से तलाक़ दिलवाने के लिए कहे। दरअसल, इस्लाम ने काज़ी को यह हक़ दे रखा है कि वो उनका रिश्ता ख़त्म करने का ऐलान कर दे, जिससे उनकी तलाक़ हो जाएगी, शरीयत में इसे ”ख़ुला” कहा जाता है।"यही तलाक़ का सही तरीका है"लेकिन अफ़सोस की बात है कि हमारे यहां इस तरीक़े की ख़िलाफ़-वर्ज़ी भी होती है और कुछ लोग बिना सोचे-समझे इस्लाम के ख़िलाफ़, ग़लत तरीक़े से तलाक़ देते हैं, जिससे ख़ुद भी परेशानी उठाते हैं और इस्लाम की भी बदनामी होती है।परवरदिगार ने ख़ुद ही तीनों तलाक़ देने को इतना लंबा और मुश्किल बना दिया है ताकि समाज में कम से कम तलाक़ हों,लेकिन जाहिल इंसानों ने एक ही झटके में 3 तलाक़ देने का तरीक़ा निकाल कर , इस तलाक़ को उतना ही आसान बना लिया है इसीलिये आज परेशान है।